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शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

दीवारों पर पेंट की जा सकने वाली बैटरी!

शानू : पिछली बार जब बल्ब से भी अधिक चमकीली और धूप जैसी सफेद रोशनी देने वाले कागज़ की बात हुई तो कई व्यक्तियों ने यह जिज्ञासा प्रकट की कि इसे बिजली कहाँ से मिलेगी? तो इसका भी जवाब हाजिर किया है अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया में स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने। जिन्होंने यह दावा किया है कि उन्होंने चांदी और कार्बन के अति सूक्ष्म पदार्थों से बनी स्याही में क़ागज़ के एक साधारण से टुकड़े को डाला जाए तो हो सकती है एक बैटरी तैयार, हल्की फुल्की बैटरी। जो ऊर्जा के भंडारण के लिए ये सफल साबित होगी। मतलब, एक साधारण क़ाग़ज़ को आने वाले समय में एक हल्की बैटरी की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है तथा इस बैटरी का उपयोग उन उपकरणों में भी किया जा सकता है जो मुद्रित सामग्री को ईमेल, ईकिताब और ऑनलाइन न्यूज़ में बदल रही हैं।



इस प्रक्रिया में क़ाग़ज़ को कार्बन की नैनोट्यूब्स और सिल्वर के नैनोवायर्स से तैयार स्याही में भिगोया जाता है। इस पेपर को तोड़ मोड़ा भी जा सकता है और किसी अम्ल या मूल द्रव में डुबोया जाए, तो भी कारगर रहता है।यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक यी कुई ने इससे पहले प्लास्टिक के इस्तेमाल से अति सूक्ष्म पदार्थों से बने ऊर्जा भंडारण हेतु उपकरण तैयार किए थे। लेकिन उनकी नई शोध में दिखाया गया है कि पेपर बैटरी ज़्यादा टिकाऊ है क्योंकि स्याही कागज़ के साथ बेहतर तरीक़े से चिपक जाती है और ये एक ऊर्जा बैटरी का काम करने लगती है जिसका इस्तेमाल कई जगह किया जा सकता है।

वैज्ञानिक यी कुई का कहना है कि ये नैनो पदार्थ विशिष्ट हैं। ये एक आयामी चीज़ है जिसका आकार बहुत छोटा होता है। अपने छोटे व्यास की वजह से नैनो पदार्थों से बनी स्याही, रेशेदार क़ाग़ज़ से मज़बूती से चिपक जाती है और इस तरह पेपर बैटरी को टिकाऊ उपकरण बना देती है। इसे पेपर सुपर कैपेसिटर भी कहा जा रहा है। यह क़रीब 40 हज़ार चार्ज डिस्चार्ज चक्रों तक काम करती रह सकती है, जो लिथियम बैटरी की तीव्रता का मुकाबला करने में सक्षम है। यी कुई का कहना है कि नैनो पदार्थ आदर्श सुचालक भी साबित होते हैं क्योंकि साधारण सुचालकों के मुक़ाबले वे बिजली को ज़्यादा कुशलता से संवाहित कर पाते हैं।







(इस अनोखी बैटरी की 'उत्पादन' प्रक्रिया देखिए, इस 2 मिनट के वीडियो में)

कागज़ का लचीलापन और भी कई उपकरणों में काम आ सकता है। यी कुई कहते हैं कि अगर वह अपनी दीवार को किसी ऊर्जा भंडारण उपकरण से पेंट करना चाहते हैं तो ब्रश का इस्तेमाल कर सकते हैं। सामान्य बैटरियों की तरह पेपर कैपेसिटरों में एक विद्युत आवेश रहता है लेकिन कम वक़्त के लिए। किन्तु कैपेसिटर, बैटरी के मुक़ाबले ज़्यादा तेज़ी से बिजली का भंडारण कर सकते हैं या उसकी ख़पत कर सकते हैं। इलेक्र्टिर या हाइब्रिड कही जाने वाली कारों में इसका इस्तेमाल हो सकता है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि डिस्ट्रीब्यूशन ग्रिड में बड़े पैमाने पर बिजली के भंडारण में इस शोध से बड़ा असर पड़ सकता है। मिसाल के लिए रात में अत्यधिक बिजली उत्पादन को दिन के भारी खपत वाले समय में इस्तेमाल के लिए बचाया जा सकता है। सौर ऊर्जा प्रणालियों और पवनचक्कियों में भी इस नई भंडारण तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है।

बर्कले स्थित कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी में रसायन-शास्त्र के प्रोफेसर फीतोंग यांग कहते हैं कि इस तकनीक का कम समय में व्यवसायिक उत्पादन कर सकने की संभावना है। बिजली उपकरणों में भी ये एक कम खर्चीले, टिकाऊ और लचीले स्रोत की तरह काम आ सकता है।

हो सकता है अगले दो-चार वर्षों में दीपावली पर हमारे घरों के डिस्टेंपर का अंदाज़ बदला हुआ नज़र आए! नहीं?

बल्ब से भी अधिक चमकीली, धूप जैसी सफेद रोशनी देने वाले कागज़: जहां चाहो चिपका लो

जो कुछ अब आप पढ़ने जा रहे हैं वह किसी परी लोक की कथा नहीं बल्कि एक अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का नतीजा है, जो अगले दो साल में ही घर घर तक पहुंचने वाला है। ब्रिटेन की प्रयोगशालाओं में आजकल जिस एक खास योजना पर बड़े जोरशोर से काम चल रहा है वह है एक ऐसा चिपकाया जा सकने वाला कागज़ तैयार करना जो बिजली के बल्बों का स्थान लेगा। कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली तकनीक विकसित करने के उद्देश्य से प्रारंभ इस योजना के अनुसार, वर्ष 2012 तक बल्ब से भी अधिक चमकीली और धूप जैसी सफेद रोशनी देने वाले कागज़ बाजार में आ जाएंगे जिन्हें जहां चाहो चिपका लो।


इन कागजों पर एक खास किस्म का रसायन चढ़ा होगा जो बल्ब से भी बेहतर यानी धूप की सी रोशनी फेंकेगा और उससे आंखें भी नहीं चौंधियाएंगी। हालांकि रसायन लिपे इन कागजों को रोशन करने के लिए बिजली का ही इस्तेमाल किया जाएगा। लेकिन इसकी वोल्टेज इतनी कम होगी कि इसे हाथ लगाने पर कोई झटका नहीं लगेगा।

इन खास कागज़ से मिलने वाली रोशनी को भी बल्बों की ही तरह रेग्यूलेटर के सहारे कम ज्यादा किया जा सकेगा।

यह तकनीक है organic light emitting diodes संक्षेप में OLEDs. इस तकनीक का उपयोग इस समय टीवी और कम्प्यूटर मॉनीटर की स्क्रीन में किया जा रहा है। जिसकी मोटाई बमुश्किल 5 रूपए के सिक्के से कुछ ही अधिक है तथा सामान्य एलसीडी टीवी के मुकाबले 40% कम बिजली की खपत करते हैं। यह उत्पाद भारत के बाज़ारों में उपलब्ध हैं।
ब्रिटिश सरकार द्वारा समर्थित कार्बन ट्रस्ट ने एक कंपनी लोमोक्स को इस तकनीक को विकसित करने के लिए अनुदान भी दिया है। कंपनी का दावा है कि ये कागज़, साधारण बिजली के बल्ब से करीब ढाई गुना अधिक प्रभावी तथा उर्जा की बचत करने वाले होंगे। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह तकनीक टेलीविजन,कंप्यूटर तथा मोबाइल फोन के पटलों में भी इस्तेमाल की जा सकेगी।

इसमें बेहद कम यानी करीब तीन से पांच वोल्ट का ही इस्तेमाल किया जाएगा जो बिजली से या फिर सौर ऊर्जा के पैनलों से या फिर बैटरियों से प्राप्त की जा सकेगी।

नीचे दिए गए वीडियो में आप देख सकते हैं कि इस तरह के कागज़ में छेद किए जाने या उसे कैंची से काटे जाने का कोई अन्तर नहीं पड़ता।







कंपनी इस खास प्रकार के कागज का इस्तेमाल 2012 में पहले खुले स्थानों जैसे सड़क पर लगने वाले दिशा सूचकों तथा बैरियरों पर करेगी जहां बिजली उपलब्ध नहीं होगी।

कंपनी का कहना है कि वैसे तो लाइट फेंकने वाले डायोड्स (एलईडी) काफी साल पहले ही बनकर तैयार हो गए थे लेकिन इनकी लागत काफी अधिक होने तथा इनके टिकाऊ न होने के कारण व्यापक इस्तेमाल के लिए इनका उत्पादन रोक दिया गया था लेकिन अब एक ऐसी नई तकनीक विकसित कर ली गई है जिसकी मदद से सूर्य सी चमकदार रोशनी रसायन लिपे कागज से ही प्राप्त कर ली जाएगी। यह तकनीक कम खर्चीली तो होगी ही साथ ही टिकाऊ भी होगी। वैसे इस तकनीक का उपयोग कर आप पूरी दीवार को अपना टीवी या कंप्यूटर मौनिटर भी बना सकेंगे!

ट्रस्ट का कहना है कि अगर विश्वभर में साधारण बल्बों की जगह ये अत्याधुनिक लाइट फेंकने वाले कागज़ लगा दिए जाएं तो 2020 तक कार्बन उत्सर्जन 25 लाख टन और 2050 तक और घटकर 74 लाख टन से भी अधिक कम हो जाएगा।

तकनीक का कुछ खुलासा यहाँ मौज़ूद है।
समाचार यहाँ है।

आपातकालीन परिस्थितियों के दौरान भी फोन और इंटरनेट द्वारा बाकी दुनिया से जुड़े रहिये

कु शानू : दुर्घटनाएँ होती रही हैं और आगे भी होती रहेंगी. हम दुर्घटनाओं को होने से रोक नहीं सकते परन्तु दुर्घटना के समय राहत और बचाव कार्यों को सुचारू रूप से अंजाम देना हमारे हाथ में है. दुर्घटना के समय कम से कम जानहानि हो इसके लिए जरूरी है कि आम लोग तथा बचाव दल आपस में हर समय जुड़े रहें तथा सूचनाओं का आदान प्रदान अच्छी गति से जारी रहे. यह सम्भव हो सकता है मोबाइल और इंटरनेट संचार माध्यमों की मदद से. लेकिन होता यह है कि जब भी कोई बड़ी दुर्घटना होती है यही दोनों माध्यम काम करना बंद कर देते हैं. भूकंप, सुनामी, बम धमाका, विमान का गिरना आदि दुर्घटनाओं के समय मोबाइल सम्पर्क का कट जाना आम बात है.


इस स्थिति से निपटने के लिए अब यूरोप के संशोधकों ने एक नई तकनीक विकसित की है. इस तकनीक की मदद से गम्भीर से गम्भीर दुर्घटना के दौरान भी बचावकर्मी अपने फोन और इंटरनेट के माध्यम से बाकी दुनिया से जुड़े रह पाएंगे.



(तकनीक का खाका बताता एक चित्र, जिसे क्लिक कर वृहद रूप में देखा जा सकता है)


DeHiGate (Deployable High Capacity Gateway for Emergency Services) नामक इस तकनीक मे एक विशेष राउटर और एक विशेष कमांड वेहिकल का इस्तेमाल किया जाता है. यह राउटर उस कमांड वाहन को किसी भी उपलब्ध तार-विहीन इंटरनेट सम्पर्क का इस्तेमाल करने की शक्ति प्रदान करता है. यहाँ तक कि उपग्रह सम्पर्क भी स्थापित किए जा सकते हैं. राउटर अपने तंत्र पर उपलब्ध बैंडविथ की गणना करता रहता है और उसमें कमी दिखाई देने पर दूसरे नेटवर्क पर चला जाता है या फिर सीधे उपग्रहों से सम्पर्क स्थापित कर लेता है. स्थानीय नेटवर्क को आपस में जुड़ा हुआ रखने के लिए शहर भर के खम्बों आदि जगहों पर नोड लगाए जाते हैं जो बैटरी से चलते हैं. इससे मोबाइल स्थानीय नेटवर्क भी बन जाता है.


इससे होता यह है कि बचाव कार्यों में लगे सुरक्षाकर्मी एक पल के लिए भी नेटवर्क से बाहर नहीं जाते. बचावकर्मी जीपीएस के माध्यम से अपनी व साथियों की भौगोलिक उपस्थिति जान पाते हैं. वे अपना खुद का स्थानीय नेटवर्क भी स्थापित कर पाते हैं. इससे ध्वस्त हो चुकी इमारत में फंसे लोगों तक पहुँचना आसान हो जाता है क्योंकि फंसे हुए लोग अपने मोबाइल के माध्यम से बाकी दुनिया से जुड़े रहते हैं.


यह तकनीक फ्रांस की कम्पनी थालेस ने विकसित की है. कुछ सम्बंधित बातें यहाँ पढ़ी जा सकती हैं. 

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